AAP’ नेताओं को लगता है कि बीजेपी MCD चुनाव में देरी का हथकंडा इसलिए अपनाना चाहती है ताकि माहौल में दिखाई दे रही उसके प्रति मतदाताओं में नाराज़गी वक्त बीतने के साथ कम हो जाए और दूसरा, इस दौरान उसे नए सिरे से अपनी चुनावी रणनीति बनाने का मौका भी मिल जाएगा.

राजधानी दिल्ली (Delhi) में नगर निगम चुनाव (Municipal Elections) अप्रैल में कराए जाने के लिए तारीख के ऐलान करने से ऐन पहले दिल्ली चुनाव आयोग (Election Commission) रुक गया और कहा कि कुछ दिन बाद ऐलान करेंगे. उस बात को दस दिन बीतने वाले हैं, लेकिन आगे बात ही नहीं हुई. घोषणा रोकने के पीछे वजह बताई गई थी कि केंद्र सरकार की तरफ से आया एक फरमान जिसमें कहा गया था कि तीन हिस्सों में बंटे दिल्ली नगर निगम (MCD) को फिर से एक किए जाने का फैसला लिया जाना है. दस साल पहले हुए बंटवारे के कुछ अरसा बाद से ही खस्ता हाल दिखाई दे रहे दिल्ली के इस स्थानीय निकाय के तीनों हिस्सों का विलय करने पर तकरीबन सभी सियासी दल पहले से राज़ी हैं और समय समय पर विशेषज्ञों की भी यही राय रही है.

वैसे दिल्ली के चुनाव आयुक्त का कहना है कि उनके पास चुनाव कराने के लिए 18 मई तक का वक्त है. चुनाव कार्यक्रम का ऐलान मतदान से कम से कम 30-40 दिन पहले करना होता है, ताकि सरकारी तंत्र इसके लिए खुद को तैयार कर सकें और उम्मीदवारों को प्रचार के लिए पर्याप्त समय मिल सके. उस हिसाब से देखा जाए तो दिल्ली में स्थानीय निकाय चुनाव का ऐलान 8 अप्रैल तक भी किया जा सकता है. विलय पर ऐतराज़ न होने और पर्याप्त समय होने के बावजूद आखिर क्या वजह है जो आम आदमी पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और हाय तौबा मचा दी. उसे शक है कि ये चुनाव लटकाने का तरीका है लिहाज़ा याचिका दायर कर चुनाव तय वक्त पर सुनिश्चित कराने की गुहार लगाई.
तीनों नगर निगमों पर बीजेपी का कब्जा
दिल्ली विधानसभा में पहले से ही काबिज़ आम आदमी पार्टी (AAP) ने पंजाब विधानसभा में 117 में 92 सीटों पर ऐतिहासिक फतेह हासिल करने के बाद सबसे नजदीकी निशाना दिल्ली के 3 निगम को बनाया है. राजधानी के उत्तर, दक्षिण और पूर्व नगर निगमों पर केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) के पार्षदों का बहुमत है. वर्तमान में आम आदमी पार्टी तीनों ही निगमों में दूसरे नम्बर पर होने के कारण प्रमुख विपक्षी दल है. आम आदमी पार्टी को लगता है कि बीजेपी हाल ही विधानसभा के लिए जाब में करारी हार और उत्तर प्रदेश में लोकप्रियता में आई कमी से आशंकित है कि कहीं दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी ऐसा ही न हो.

आप’ नेताओं को लगता है कि बीजेपी देरी का हथकंडा इसलिए अपनाना चाहती है ताकि माहौल में दिखाई दे रही उसके प्रति मतदाताओं में नाराज़गी वक्त बीतने के साथ कम हो जाए और दूसरा, इस दौरान उसे नए सिरे से अपनी चुनावी रणनीति बनाने का मौका भी मिल जाएगा. हालांकि बीजेपी नेता उल्टा दावा कर रहे हैं. 10 मार्च तक उनका कहना था कि ‘आप’ की दिल्ली सरकार की तरफ से इस साल लागू नई अबकारी नीति से दिल्ली के नागरिक नाराज़ हैं और खुद आप पार्टी चुनाव से भागने की कोशिश कर रही है, हालांकि अब ‘आप’ की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई याचिका बीजेपी के इस दावे को ख़ारिज करने के लिए काफी है.

दूसरी तरफ अगर केंद्र सरकार दिल्ली के तीनों निगमों के एकीकरण का फैसला लेने में थोड़ा भी और समय लेती है तो नगर निगम चुनाव का टलना तय है. वजह है एकीकरण की प्रक्रिया और उसकी पेचीदगियां. इस पर बात करने से पहले दिल्ली में नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं देने वाले नगर निगम की अहमियत जानना ज़रूरी है.
नगर निगम के बंटवारे का मकसद
दिल्ली नगर निगम दुनिया के किसी भी मेट्रोपोलिटन शहर का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय था जिसे 2012 में बांटा गया. तब दिल्ली की आबादी 1 करोड़ 60 लाख (2011 की मतगणना) से ऊपर थी. दिल्ली कैंट, लुटियन दिल्ली और इसके आसपास के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर राजधानी के ज्यादातर हिस्से की आबादी को सफाई, स्वास्थ्य, प्राइमरी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा आदि बुनियादी सुविधाएं देने का काम एमसीडी करती थी. पानी की सप्लाई पहले ही इससे हटा कर दिल्ली जल बोर्ड के जिम्मे कर दी गई. तब दिल्ली का एक ही मेयर होता था और एमसीडी का कमिशनर और चीफ इंजीनियर भी एक-एक ही हुआ करता था. मेयर की शक्तियां भी ज्यादा थीं.

लगातार बढ़ती आबादी और बढ़ते काम के कारण तमाम व्यवस्था गड़बड़ाने लगी तो प्रशासन ने बेहतर बनाने के नज़रिए से इसके विकेंद्रीकरण का तरीका सोचने लगी. क्योंकि दिल्ली नगर निगम का गठन 7 अप्रैल 1958 को संसद में पास किए गए प्रस्ताव के जरिए हुआ था सो इसे बांटने के लिए भी संसद में प्रस्ताव लाना ज़रूरी था. लेकिन उससे पहला ये प्रस्ताव दिल्ली विधानसभा में पास किया गया था. इससे पहले इस पूरे मामले पर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाई गई थी जिसमें पक्ष विपक्ष दोनों के नेता थे. बीजेपी के प्रोफ़ेसर वी के मल्होत्रा और जगदीश मुखी भी उनमें थे.
विकेंद्रीकरण के बाद बंटे एमसीडी में उत्तरी और दक्षिण दिल्ली में 104 – 104 वार्ड लेकिन पूर्वी दिल्ली में 64 वार्ड बने. बंटवारे के बाद से अब तक हुए दोनों चुनाव में (2012 और 2017) तीनों निगमों में बीजेपी को बहुमत मिला. दूसरे पर जहां 2012 में कांग्रेस रही लेकिन 2017 में ‘आप’ तीनों ही नगर निगमों में नंबर दो पर रही. कांग्रेस खिसक कर तीसरे नंबर पर आ गई जहां पहले बहुजन समाज पार्टी होती थी. तीनों में नगर निगमों में अलग-अलग मेयर (महापौर) बने और कमिश्नर भी बनाए गए लेकिन पिछले कई साल से दिल्ली में नगर निगम की परेशानियां बढ़ती रहीं. आर्थिक हालात इतने खराब हो गए कि कर्मचारियों को समय पर वेतन तक के लाले पड़ गए. सफाई कर्मियों की हड़ताल से दिल्ली में कूड़े के पहाड़ भी दिखे. तीनों निगमों की कमाई में फर्क था सो उस हिसाब से उन्होंने नियम भी अपने अपने बनाने शुरू कर दिए. कुल मिलाकर जब अव्यवस्था दिखने लगी तो उपाय के तौर पर नगर निगम को फिर से एक करने का तरीका सोचा गया. यूं तो खुद ‘आप’ के एक विधायक 2015 में विधानसभा के शीतकालीन सत्र में प्राइवेट बिल लाए.